Wednesday, September 10, 2008

नारी ही सतयुग लायेगी

अपने पीयूष अनुदानो का, जनता को पान करायेगी ।
आया वह पवित्र ब्रम्हमुहूर्त, जब नारी सतयुग लायेगी ।।

ऊषाकाल का उदभव हो रहा, अरुणोदय की पावन बेला हैं,
यज्ञ की बेदी सजी कहीं, कहीं नर-समूहो का मेला हैं,
ऐसे सुन्दर उपवन में, युग परिवर्तन का बिगुल बजायेगी ।
आया वह पवित्र ब्रम्हमुहूर्त, जब नारी सतयुग लायेगी ।।

करी जीव सृष्टि की संरचना, चेतना का संचार किया,
प्रसव वेदना को सह, माता बनकर प्यार दिया,
श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा, बन, इस अनुकम्पा का एहसास दिलायेगी
आया वह पवित्र ब्रम्हमुहूर्त, जब नारी सतयुग लायेगी ।।

देवयुग्मो में प्रथम नारी, तत्पश्चात नर का आए नाम,
उमा-महेश, ‘शची-पुरन्दर, चाहे हो वह सीता-राम,
मानुषी रुप में देवी हैं, इस तथ्य को ज्ञात करायेगी ।
आया वह पवित्र ब्रम्हमुहूर्त, जब नारी सतयुग लायेगी ।।

नारी हृदय हैं निर्मल-कोमल, प्रेम भंडार छुपा हैं सारा,
मानवता का सिंचन करने, निकले इससे अमृत-धारा,
मुर्छित वसुन्धरा पर पुन: जाग्रती आएगी ।
आया वह पवित्र ब्रम्हमुहूर्त, जब नारी सतयुग लायेगी ।।

-साधना मित्तल
अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1997

Sunday, September 7, 2008

माटी का संदेशा

फिर से संस्कार परिपाटी, घर-घर जाए मनाई।
गुरुग्राम की पावनमाटी, यही संदेशा लाई।।

यह वह परम्परा हैं जिसने, घर-घर दिए जलाए।
सोलह संस्कारों के द्वारा, वीररत्न उपजाए।
धु्रव, प्रहलाद, राम, लक्ष्मण सब, इसी ज्योति के जाए।
भरत, शत्रुघन और अभिमन्यु इसी ज्योति से पाये।
नवनिहाल बच्चों की फिर से, इस विधि करो गढ़ाई।।

क्यों जन्मे ऐसे दुनिया मे, यह मनुष्य तन पाया।
मता-पिता बांधवो तक ने, कुछ भी नहीं बताया।
ऋषियों ने था पहले से ही, ऐसा चक्र चलाया।
जन्म, मरण, मरणोत्ततर जीवन का सारा रहस्य बताया।
नामकरण-यज्ञोपवीत तक, सबकी विधि बतलाई।।

मुण्डन, विद्यारम्भ, अन्नप्राशन, जो नहीं कराते।
उनके बालक माटी के, माधव बनकर रह जाते।
क्यों विवाह में आखिर जुड़ते, इतने रिश्ते-नाते।
यह संस्कार भॉंवरों तक का, भेद सभी बतलाते।
उनको समझा नहीं गृहस्थी, नाहक मूढ़ बसाई।।

यह मनुष्य तन हैं अमूल्य, मत समझो इसको माटी।
जिसने समझा नहीं उसे तो निपट मौत की घाटी।
ज्ञानी सोच-समझ कर काटे, मूरख रो-रो काटी।
संस्कार हँस-हँसकर जीवन जीने की परिपाटी।।
परम्परा यह अति महान हैं जाए नहीं भुलाई।।

बलराम सिंह परिहार
अखण्ड ज्योति अप्रेल 1998

Saturday, September 6, 2008

कृपा तुम्हारी जो मिल गई

कृपा तुम्हारी जो मिल गई तो, विचार-विभ्रम नहीं रहेगा,
विकास-पथ पर न विघ्न होंगे, कहीं व्यतिक्रम नहीं रहेगा।

कहीं पे निर्जन अलंघ्य वन हो, अपार पर्वत, अगम्य घाटी,
अछोर सागर, अनंत जल हो, या शुष्क मरुथल, सुरम्य माटी,
कहीं न भय या विभ्रांति होगी, दिशा-दिशा में प्रकाश होगा,
नहीं निराशा, प्रमाद का फिर प्रभाव कोई भी पास होगा,

हमारा संकल्प और साहस अशक्त या कम नहीं रहेगा।

प्रभो! हमें दो वो कर्म-कौशल, जो मन कहीं पर न डगमगाए,
प्रत्येक कर्तव्य-कर्म केवल, तुम्हारी आभा से जगमगाए,
चरित्र-चिंतन की गंध से हो, पवित्र वातावरण हमारा,
सुपात्रता से ही पा सकें फिर, तुम्हारी बाहों का हम सहारा,

हमारा पुरुषार्थ फिर किसी पल, तनिक भी अक्षम नहीं रहेगा।

समर्थ गुरु! आपकी कृपा की,सुछत्रछाया में कान्ति होगी,
किसी हृदय में न वेदना या असीम पीड़ा-अशांति होगी,
न कंठ में कोई स्वर घुटेंगे, सभी का दु:ख-दर्द व्यक्त होगा,
अध्यात्म-बल की समृद्धि पाकर, प्रत्येक मानव सशक्त होगा,

शरीर, चिंतन, समय व धन का, कहीं असंयम नहीं रहेगा।

अनंत संघर्ष हम करेंगे, न भीत होंगे कुरीतियों से,
न संप्रदायो से, जातियों से, समाज की क्रूर नीतियों से,
नहीं टिकेंगी हमारे सम्मुख, गलित प्रथाएं या मान्यताएं,
नहीं भरेगी किसी भी पथ को, तिमिर से कोई अंधताएं,

स्वयं करेंगे सृजन नियोजित, विनाश का क्रम नहीं रहेगा।
कृपा तुम्हारी जो मिल गई तो, विचार-विभ्रम नहीं रहेगा।

अखण्ड ज्योति नवम्बर 2007

Monday, September 1, 2008

Winners vs Losers

The Winner always has a plan;
The Loser always has an excuse.

The Winner says “let me do it for you”;
The Loser says “that’s not my job”.

The Winner is always a part of the answer;
The Loser is always a part of the problem.

The Winner sees an answer in every problem;
The Loser sees a problem in every answer.

The Winner sees a green near every sand rap;
The Loser sees a sand rap near every green.

The Winner says “it may be difficult but it’s possible”;
The Loser says “it may be possible but it’s difficult”.

BE HELPING HAND, PLEDGE YOUR EYES TO THE NATION AND BE SOMEONE’S HOPE FOR THE LIGHT.

Sunday, August 31, 2008

जयघोष

गायत्री माता की - जय।
यज्ञ भगवान् की - जय।
वेद भगवान् की - जय।
भारतीय संस्कृति की - जय।
भारत माता की - जय।
एक बनेंगे - नेक बनेंगे।
हम सुधरेंगे - युग सुधरेगा।
हम बदलेंगे - युग बदलेगा।
विचार क्रान्ति अभियान - सफल हो, सफल हो, सफल हो।
ज्ञान यज्ञ की लाल मशाल- सदा जलेगी-सदा जलेगी।
ज्ञान यज्ञ की ज्योति जलाने- हम घर-घर में जायेंगे।
नया सवेरा नया उजाला- इस धरती पर लायेंगे।
नया समाज बनायेंगे- नया जमाना लायेंगे।
जन्म जहॉं पर- हमने पाया।
अन्न जहॉं का- हमने खाया।
वस्त्र जहॉं के- हमने पहने।
ज्ञान जहॉं से- हमने पाया।
वह हैं प्यारा- देश हमारा।
देश की रक्षा कौन करेगा- हम करेंगे, हम करेंगे।
युग निर्माण कैसे होगा- व्यक्ति के निर्माण से।
मॉं का मस्तक ऊंचा होगा- त्याग और बलिदान से।
नित्य सूर्य का ध्यान करेंगे- अपनी प्रतिभा प्रखर करेंगे।
मानव मात्र- एक समान।
जाति वंश सब- एक समान।
नर और नारी- एक समान।
नारी का सम्मान जहॉं हैं- संस्कृति का उत्थान वहॉं है।
जागेगी भाई जागेगी- नारी शक्ति जागेगी।
हमारी युग निर्माण योजना- सफल हो, सफल हो, सफल हो।
हमारा युग निर्माण सत्संकल्प- पूर्ण हो, पूर्ण हो, पूर्ण हो।
इक्कीसवीं सदी- उज्ज्वल भविष्य।
वन्दे वेद मातरम्।।

Friday, August 29, 2008

शहीदों के प्रति

रक्त से लिखा गया हैं, विजय का इतिहास जो।
राष्ट्र का वंदन हैं, उस उत्सर्ग के उल्लास को।।

रक्त की हर बूंद , जन-जन के ह्रदय में लिख गयी।
राष्ट्र-श्रद्धा, आपके हाथों सहज ही बिक गयी।।
बल दिया बलिदान ने, इस राष्ट्र के विश्वास को।
राष्ट्र का वंदन हैं, उस उत्सर्ग के उल्लास को।।

राष्ट्र की रग-रग फड़कती, आपके बलिदान से।
राष्ट्र प्यारा हो गया हैं, हम सभी को प्राण से।।
राष्ट्र पर हम भी करेंगे समर्पित हर साँस को।
राष्ट्र का वंदन हैं, उस उत्सर्ग के उल्लास को।।

आपकी गाथा सुनाई जायेगी , संतान को।
और माताएँ भरेंगी सुतों में स्वाभिमान को।।
छू लिया हैं आपने बलिदान के आकाश को।
राष्ट्र का वंदन हैं, उस उत्सर्ग के उल्लास को।।

आपका परिवार अब राष्ट्रीय धरोहर हो गया।
त्याग उसका, राष्ट्र के सम्मुख उजागर हो गया।।
राष्ट्र मुरझाने न देगा, आपके मधुमास को।
राष्ट्र का वंदन हैं, उस उत्सर्ग के उल्लास को।।

आओ ! सब मिल, “शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करें।
राष्ट्र के रक्षार्थ, सब कुछ मिटाने का व्रत धरें।।
ताकि जीवित रख सकें, उत्सर्ग के इतिहास को।
राष्ट्र का वंदन हैं, उस उत्सर्ग के उल्लास को।।

-मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’
अखण्ड ज्योति, जनवरी २००२

Tuesday, August 26, 2008

युगानुरुप परिवार

विश्व भर में हैं हमारा पारिवारिक संगठन,
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

हो गया अब तों मिशन का व्योम-सा विस्तार हैं,
विश्व के हर छोर को छूता विषद परिवार हैं,
यत्न हो अपना कि घर में भी जटिल शैली न हो,
दृष्टि सबकी स्वच्छ हो, दिग्भ्रांत मटमैली न हो,

धैर्यपूर्वक हम करें हर प्रश्न -शंका का शमन।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

विश्व-मन में आस्था फिर आज अंकुराने लगी ,
अब विधेयात्मक पुन: होने लगी हैं जिंदगी,
उस सुखद वातावरण की सृष्टि घर में भी करें,
भावना संवेदना-सहकार की, सबमें भरें ,

हो घरों में भी उसी निर्दिष्ट पथ का अनुसरण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

विश्व के परिवार का लघु रुप घर परिवार हो,
हो सहज सामीप्य सब में, आत्मवत् व्यवहार हो,
हो नहीं संकीर्णता, सबकी सुविस्तृत सोच हो,
दोष-स्वीकृति में किसी को भी नहीं संकोच हो,

हो सरल, विश्वास -आधारित परस्पर आचरण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

हर सुखद परिवार हो ऐसा, कि ज्यों उद्यान हो,
वृक्षवत् सुंदर सुगढ़ व्यिक्तत्व का निर्माण हो,
हर विटप को संस्कृति से यूँ सतत पोषण मिले,
वह न झंझावात के आघात से तिल भर हिले,

हो न पाए फिर वहां कोई विषेला संक्रमण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

उस विषद परिवार का प्रत्येक घर आदर्श हो,
कुप्रथाओं से सभी का संगठित संघर्ष हो,
शान्ति हो, संतोष हो, मन हो न कोई क्लेश में,
हो सहज शालीनता व्यवहार, वाणी, वेश में,

आधुनिकता हो वहां , पर हो न कृत्रिम आवरण।
हो उसी अनुरुप घर-परिवार का वातावरण।

अखण्ड ज्योति दिसम्बर २००७

Tuesday, August 19, 2008

"धन्य हैं वे"

धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।
धन्य हैं वे लेखनी, गुणगान गुरु का जो लिखें।।

प्राण में गुरुतत्त्व की, गुरुता मचलती ही रहे।
कर्म में सदगुरु की, गरिमा उछलती ही रहें।।
आचरण वे धन्य, गुरु आदर्श जो धारण करें।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

ज्ञान के हैं सिन्धु सदगुरु, ज्ञान के हम बिन्दु हों।
चंद्र से हैं सौम्य सद्गुरु, शान्ति के हम इंदु हों।।
ज्ञान का आलोक बांटे , हम सुधा जैसा झरें।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

छलछलाता भाव-संवेदन, भरे हैं सदगुरु।
दुखी जन पर, द्रवित करुणा-सा झरे हैं सदगुरु।।
भाव-मरहम लगा, रिसते घाव दुखियों के भरे।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

मनुजता पीड़ित हुई हैं, मनुज के व्यवहार से।
सतत उठती जा रही संवेदना, संसार से।।
मानवीय संवेदना का, स्वर्ग हम सर्जित करें।
धन्य हैं वे धडकने, सतनाम गुरु का जो जपें।

-मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’
अखण्ड ज्योति नवम्बर २००५

Friday, August 15, 2008

गरिमामयी वेला

एक-एक क्षण का महत्त्व हैं, हम सक्रिय हो जायें।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

पहले स्वयं आत्मबल अर्जित करें साधनाओं से,
करना हैं संघर्ष धैर्य से हमको बाधाओं से,
गुरु के आदर्शों के हम हो अति उत्कृष्ट नमूना,
रहे न कोई कोना अपना, गुरु प्रभाव से सूना,

ब्रम्हवाक्य जैसे सूत्रों को जीवन में अपनायें।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

प्रामाणिक बन नगर-गाँव , घर-घर हमको जाना हैं,
जन-जन तक सन्देश युगपुरुष का फिर पहुँचाना हैं,
जनसाधारण या विशिष्ट जन हो, सब तक जायेंगे,
गुरु के तप का निज वाणी में हम प्रभाव पाएंगे,

तम के हर घेरे तक पहुँचें उनकी दिव्य प्रभाएँ।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

परिचित होंगे तो आकर्षण उनके प्रति जागेगा,
प्रश्न-तर्क होंगे, प्रबुद्धजन फिर प्रमाण माँगेगा,
जन-जन को समझाने की सरलीकृत पद्धति होगी,
किन्तु मनीषी जन के लिए पृथक ही प्रस्तुति होगी,

इसके लिए निरन्तर अपनी हम पात्रता बढा़एँ।
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

समय बहुत थोड़ा हैं लेकिन काम बहुत भारी हैं,
ध्वंस हो रहा किंतु सृजन-अभियान सतत जारी हैं,
यदि संकल्पित होंगे हम, विश्वास न डिग पायेगा,
गुरु से साहस तथा शक्ति फिर हर परिजन पाएगा,

परिवर्तन की इस वेला में मिलकर कदम बढा़एँ
गुरु की जन्म शताब्दी को हम गरिमापूर्ण बनाये।

-शचीन्द्र भटनागर अखण्ड ज्योति अगस्त 2008

Monday, August 11, 2008

साबरमती के सन्त

दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
आँधी में भी जलती रही गाँधी तेरी मशाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी ...

धरती पे लड़ी तूने अजब ढंग की लड़ाई
दागी न कहीं तोप न बंदूक चलाई
दुश्मन के किले पर भी न की तूने चढ़ाई
वाह रे फ़कीर खूब करामात दिखाई
चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी ...
रघुपति राघव राजा राम

शतरंज बिछा कर यहाँ बैठा था ज़माना
लगता था मुश्किल है फ़िरंगी को हराना
टक्कर थी बड़े ज़ोर की दुश्मन भी था ताना
पर तू भी था बापू बड़ा उस्ताद पुराना
मारा वो कस के दांव के उलटी सभी की चाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी ...
रघुपति राघव राजा राम

जब जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े
मज़दूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े
हिंदू और मुसलमान, सिख पठान चल पड़े
कदमों में तेरी कोटि कोटि प्राण चल पड़े
फूलों की सेज छोड़ के दौड़े जवाहरलाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी ...
रघुपति राघव राजा राम

मन में थी अहिंसा की लगन तन पे लंगोटी
लाखों में घूमता था लिये सत्य की सोंटी
वैसे तो देखने में थी हस्ती तेरी छोटी
लेकिन तुझे झुकती थी हिमालय की भी चोटी
दुनिया में भी बापू तू था इन्सान बेमिसाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी ...
रघुपति राघव राजा राम

जग में जिया है कोई तो बापू तू ही जिया
तूने वतन की राह में सब कुछ लुटा दिया
माँगा न कोई तख्त न कोई ताज भी लिया
अमृत दिया तो ठीक मगर खुद ज़हर पिया
जिस दिन तेरी चिता जली, रोया था महाकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
रघुपति राघव राजा राम

Sunday, August 10, 2008

वनवासी राम

मात-पिता की आज्ञा का तो केवल एक बहाना था।
मातृभूमि की रक्षा करने प्रभु को वन में जाना था॥

पिता आपके राजा दशरथ मॉं कौशल्या रानी थी
कैकई और मंथरा की भी अपनी अलग कहानी थी
भरत शत्रुध्न रहे बिलखते लखन ने दी कुरबानी थी
नई कथा लिखने की प्रभु ने अपने मन में ठानी थी
सिंहासन है गौण प्रभु ने हमको पाठ पढाना था

अवधपुरी थी सुनी सुनी टूटी जन जन की आशा
वन में हम भी साथ चलेगें ये थी सब की अभिलाषा
अवधपुरी के सब लोगो ने प्रभु से नाता जोड लिया
चुपके से प्रभु वन को निकले मोह प्रजा का छोड दिया
अपने अवतारी जीवन का उनको धर्म निभाना था

सिंहासन पर चरण पादुका नव इतिहास रचाया था
सन्यासी का वेश भरत ने महलों बीच बनाया था
अग्रज और अनुज का रिश्ता कितना पावन होता है
राम प्रेम में भरत देखिये रात रात भर रोता है
भाई भाई सम्बन्धों का हमको मर्म बताना था

किसने गंगा तट पर जाकर केवट का सम्मान किया
औ” निषाद को किसने अपनी मैत्री का वरदान दिया
गिद्धराज को प्रेम प्यार से किसने गले लगया था
भिलनी के बेरों को किसने भक्तिभाव से खाया था
वनवासी और दलित जनों पर अपना प्यार लुटाना था

नारी मर्यादा क्या होती प्रभु ने हमें बताया था
गौतम पत्नी को समाज में सम्मानित करवाया था
सुर्पंखा ने स्त्री जाती को अपमानित करवाया जब
नाक कान लक्ष्मण ने काटे उसको सबक सिखाया तब
नारी महिमा को भारत में प्रभु ने पुनः बढ़ाना था

अगर प्यार करना है तुमको राम सिया सा प्यार करो
वनवासी हो गई पिया संग सीता सा व्यवहार करो
जंगल जंगल राम पूछते सीता को किसने देखा
अश्रुधार नयनों से झरती विधि का ये कैसा लेखा
राम सिया का जीवन समझो प्यार भरा नजराना था

स्वर्णिम मृग ने पंचवटी में सीता जी को ललचाया
भ्रमित हुई सीता की बुद्धि लक्ष्मण को भी धमकाया
मर्यादा की रेखा का जब सीता ने अपमान किया
हरण किया रावण ने सिय का लंका को प्रस्थान किया
माया के भ्रम कभी ना पडना हमको ध्यान कराना था

बलशाली वानर जाति तो पर्वत पर ही रह जाती
बाली के अत्याचारों को शायद चुप ही सह जाती
प्रभु ने मित्र बनाये वानर जंगल पर्वत जोड दिये
जाति और भाषा के बन्धन पल भर में ही तोड दिये
जन-जन भारत का जुड जाये प्रभु ने मन मे ठाना था

मैत्री की महिमा का प्रभु ने हमको पाठ पढाया था
सुग्रीव-राम की मैत्री ने बाली को सबक सिखाया था
शरणागत विभीषण को भी प्रभु ने मित्र बनाया था
लंका का सिंहासन देकर मैत्री धर्म निभाया था
मित्र धर्म की पावनता का हमको ज्ञान कराना था

भक्त बिना भगवान की महिमा रहती सदा अधूरी है
हनुमान बिना ये कथा राम की हो सकती क्या पूरी है
सिया खोज कर लंक जलाई जिसने सागर पार किया
राम भक्ति में जिसने अपना सारा जीवन वार दिया
भक्ति मे शक्ति है कितनी दुनिया को दिखलाना था

अलग-अलग था उत्तर-दक्षिण बीच खडी थी दीवारें
जाति वर्ग के नाम पे हरदम चलती रहती तलवारें
अवधपुरी से जाकर प्रभु ने दक्षिण सेतुबन्ध किया
उत्तर-दक्षिण से जुड जाये प्रभु ने ये प्रबन्ध किया
सारा भारत एक रहेगा जग को ये बतलाना था

राक्षस राज हुआ धरती पर ऋषि-मुनि सब घबराते थे
दानव उनके शीश काटकर मन ही मन हर्षाते थे
हवन यज्ञ ना पूर्ण होते गुरूकुल बन्द हुये सारे
धनुष उठाकर श्री राम ने चुन चुन कर राक्षस मारे
देव शक्तियों को भारत में फिर सम्मान दिलाना था

गिलहरी, वानर, भालू और गीध भील को अपनाया
शक्ति बडी है संगठना में मंत्र सभी को समझाया
अगर सभी हम एक रहे तो देश बने गौरवशाली
दानव भय से थर्रायेगें रोज रहेगी दीवाली
संघ शक्ति के दिव्य मंत्र को जन-जन तक पहुंचाना था

मर्यादा पुरुषोतम प्रभु ने सागर को समझाया था
धर्म काज है सेतुबन्ध ये उसको ये बतलाया था
अहंकार में ऐंठा सागर सम्मुख भी ना आया था
क्रोध से प्रभु ने धनुष उठाया सागर फिर घबराया था
भय बिन होये प्रीत ना जगत में ये संदेश गुंजाना था

रावण के अत्याचारों से सारा जगत थर्राता था
ऋषि मुनियों का रक्त बहाकर पापी खुशी मनाता था
शिव शंकर के वरदानों का रावण ने उपहास किया
शीश काटकर प्रभु ने अरि का सबको नव विश्वास दिया
रावण के अत्याचारों से जग को मुक्त कराना था

लंका का सुख वैभव जिनको तनिक नही मन से भाया
अपनी प्यारी अवधपुरी का प्यार जिन्हें खींचे लाया
मातृभूमि और प्रजा जनों की जो आवाज समझते थे
प्रजा हेतु निज पत्नी के भी नही त्याग से डरते थे
मातृभूमि को स्वर्ग धाम से जिसने बढकर माना था

बाल्मिकी रत्नाकर होते रामायण ना कह पाते
तुलसी पत्नी भक्ति में ही जीवन यापन कर जाते
रामानन्द ना सागर होते राम कथा ना दिखलाते
कलियुग में त्रेता झांकी के दर्शन कभी ना हो पाते
कवियों की वाणी को प्रभु ने धरती पर गुंजाना था

जन-जन मन में ”चेतन” है जो राम कथा है कल्याणी
साधु सन्त सदियों से गाते राम कथा पावन वाणी
पुरखों ने उस राम राज्य का हमको पाठ पढाया था
राम राज्य के आदर्शों को हम सबने अपनाया था
भरत भूमि के राजाओं को उनका धर्म बताना था

Saturday, August 9, 2008

तिरंगा

ये तिरंगा ये तिरंगा ये हमारी शान है
विश्व भर में भारती की ये अमिट पहचान है।
ये तिरंगा हाथ में ले पग निरंतर ही बढ़े
ये तिरंगा हाथ में ले दुश्मनों से हम लड़े
ये तिरंगा दिल की धड़कन ये हमारी जान है

ये तिरंगा विश्व का सबसे बड़ा जनतंत्र है
ये तिरंगा वीरता का गूँजता इक मंत्र है
ये तिरंगा वंदना है भारती का मान है

ये तिरंगा विश्व जन को सत्य का संदेश है
ये तिरंगा कह रहा है अमर भारत देश है
ये तिरंगा इस धरा पर शांति का संधान है

इसके रेषों में बुना बलिदानियों का नाम है
ये बनारस की सुबह है, ये अवध की शाम है
ये तिरंगा ही हमारे भाग्य का भगवान है

ये कभी मंदिर कभी ये गुरुओं का द्वारा लगे
चर्च का गुंबद कभी मस्जिद का मिनारा लगे
ये तिरंगा धर्म की हर राह का सम्मान है

ये तिरंगा बाईबल है भागवत का श्लोक है
ये तिरंगा आयत-ए-कुरआन का आलोक है
ये तिरंगा वेद की पावन ऋचा का ज्ञान है

ये तिरंगा स्वर्ग से सुंदर धरा कश्मीर है
ये तिरंगा झूमता कन्याकुमारी नीर है
ये तिरंगा माँ के होठों की मधुर मुस्कान है

ये तिरंगा देव नदियों का त्रिवेणी रूप है
ये तिरंगा सूर्य की पहली किरण की धूप है
ये तिरंगा भव्य हिमगिरि का अमर वरदान है

शीत की ठंडी हवा, ये ग्रीष्म का अंगार है
सावनी मौसम में मेघों का छलकता प्यार है
झंझावातों में लहरता ये गुणों की खान है

ये तिरंगा लता की इक कुहुकती आवाज़ है
ये रवि शंकर के हाथों में थिरकता साज़ है
टैगोर के जनगीत जन गण मन का ये गुणगान है

ये तिंरगा गांधी जी की शांति वाली खोज है
ये तिरंगा नेता जी के दिल से निकला ओज है
ये विवेकानंद जी का जगजयी अभियान है

रंग होली के हैं इसमें ईद जैसा प्यार है
चमक क्रिसमस की लिए यह दीप-सा त्यौहार है
ये तिरंगा कह रहा- ये संस्कृति महान है

ये तिरंगा अंदमानी काला पानी जेल है
ये तिरंगा शांति औ' क्रांति का अनुपम मेल है
वीर सावरकर का ये इक साधना संगान है

ये तिरंगा शहीदों का जलियाँवाला बाग़ है
ये तिरंगा क्रांति वाली पुण्य पावन आग है
क्रांतिकारी चंद्रशेखर का ये स्वाभिमान है

कृष्ण की ये नीति जैसा राम का वनवास है
आद्य शंकर के जतन-सा बुद्ध का सन्यास है
महावीर स्वरूप ध्वज ये अहिंसा का गान है

रंग केसरिया बताता वीरता ही कर्म है
श्वेत रंग यह कह रहा है, शांति ही धर्म है
हरे रंग के स्नेह से ये मिट्टी ही धनवान है

ऋषि दयानंद के ये सत्य का प्रकाश है
महाकवि तुलसी के पूज्य राम का विश्वास है
ये तिरंगा वीर अर्जुन और ये हनुमान है

- राजेश चेतन

Saturday, August 2, 2008

वंदन करते हैं हॄदय से

वंदन करते हैं हॄदय से,
याचक हैं हम ज्नानोदय के,
वीणापाणी शारदा मां !
कब बरसाओगी विद्या मां?
कर दो बस कल्याण हे मां।
हे करुणामयी पद्मासनी
हे कल्याणी धवलवस्त्रणी!
हर लो अंधकार हे मां,
कब बरसाओगी विद्या मां ?
कर दो बस कल्याण हे मां।
जीवन सबका करो प्रकाशित,
वाणी भी हो जाए सुभाषित,
बहे प्रेम करुणा हॄदय में,
ना रहे कोई अज्ञान किसी में,
ऎसा दे दो वरदान हे मां,
कर दो बस कल्याण हे मां।

ज्ञानदीप से दीप जले,
विद्या धन का रुप रहे,
सौंदर्य ज्ञान का बढ़ जाए,
बुद्धी ना कुत्सित हो पाए,
ऎसा देदो वरदान हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां!
कर दो बस कल्याण हे मां॥

--प्रेमलता

Friday, August 1, 2008

उम्मीदों के दीप जला

दूर अँधेरा-मन का कर दे,
आशाओं के-दीप-जला।
उल्लासों से जीवन भर दे,
जिज्ञासा के-दीप-जला।।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के-दीप-जला।।
अंधयारे की घडी न स्थिर,
पल पल जाने वाली है।
कहाँ अँधेरा अमां रात का,
चहुँ देख उजियाली है।।
छोड हताशा और निराशा,
विश्वासों के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।
मन के जीते-जीत उसी का,
नाम भला है खुशहाली।
समृद्धि की शाम उसी का,
नाम भला है दीवाली।।
समृद्धि -पैगाम-समझ के-
आभासों के दीप जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।
विश्वासों की ऊर्जा मन में,
हृदय दीप प्रज्वलित कर।
मुस्कानों को मीत बना ले,
हुलसित हृदय प्रफुल्लित कर।।
उजालों के धनी-प्रणेता,
आभाओं के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।
घर-आँगन मुंडेर द्वार पे,
हो आलोक-उजालों का।
मन के सूने गलियारों में,
भर दे रंग-उजालों का।।
आत्मा ज्ञान-प्रज्ञा के मन में
प्रभाओं के दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी
उम्मीदों के दीप-जला।।
खुद दीपक बन-जला नहीं-
उसको जीवन मिला नहीं।
बिना जले जो करे उजाला,
ऐसा दीपक-जला नहीं।।
हृदयाकाश-आलोकित हो,
ताराओं से दीप-जला।
दिल की दुनियाँ रोशन होगी,
उम्मीदों के दीप-जला।।

--
रामगोपाल राही
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दीपक और अँधेरा

दंभ में तम ने कहा
दीप को ललकार कर।
क्यों जला ही-जा रहा
वक्त-तू-बेकार कर।।
आकृति तेरी लघु है,
मैं असीमित-तम घनेरा।
व्योम से धरती के मध्य,
देख-ले। अस्तित्व मेरा।।
साथ मेरे है-हवा-
झंझावातों सी रात भी।
सह सकेगा तू भला-
झौंकों का आघात भी।।
गहन हो गहराता - मैं,
छा रहूँ बन के अंधेरा।
दीप तू तिल रोशनी का,
है नगण्य महत्त्व तेरा।।
दीप बोला तम तुझे,
इतना! अहंकार है।
आलोक तू नहीं जानता,
इससे तू अंधकार है।।
आलोक थोडा ही भला,
विश्वास की आवाज है।
पा-संभलता आदमी,
दीप! वो आगाज है।।
दीप मैं विश्वास का,
आलोक हूँ, मैं प्राण का।
तू अँधेरा-मैं-उजाला,
श्रद्धा-हृदय में-ज्ञान का।।
प्रेरणा-उत्कर्ष की मैं,
क्षमता बल संघर्ष का।
जितना जलाओ मैं जलूँ,
हूँ उजाला-हर्ष का ।।
रोकता पथ-तू-अँधेरे,
आपदा बन-तू अडे।
व्यक्ति-चाहे उजाला,
काम करले-वो-बडे।।
अपनत्व तुझ से तम बता,
है कहाँ-संसार में।
कौन चाहे अपना तुमको,
डूबे! अंधकार में।।
दीप की बातें - सुनी,
काँपा अँधेरा ढह गया।
दीपक जला - दीपक तले,
सिमटा अँधेरा खो गया।।

---
रामगोपाल राही
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Thursday, July 31, 2008

शान्ति का धाम

चलो रे मन, शांतिकुंज सुखधाम।
जहाँ गूंजती हैं गुरुवर की वाणी आठों याम॥

ज्योति अखंड जहाँ जलती हैं, नित नूतन आशा जगती हैं।
सफल मनोरथ करती जिसकी माटी ललित ललाम॥

जन सेवा का सार जहाँ हैं, देवोपम संसार जहाँ हैं।
प्रतिभाएँ रहती हैं तजकर, धन-साधन-पद-नाम॥

जहाँ सहज मन से मन मिलता, अनदेखा अपनापन मिलता।
सुधा बरसती हैं, कण-कण से जहाँ सुबह और शाम॥

जहाँ न अपना-बेगाना, सीखा सुख देकर सुख पाना।
पीर बँटा लेते सब देकर अपना सुख-आराम॥

जहाँ कामनाएँ मिट जाती, करुणा की धारा लहराती।
स्वार्थ-भाव खोकर मानव का मन होता निष्काम॥

नवयुग का युगतीर्थ यहीं हैं, शान्ति न इतनी और कहीं हैं।
तम डूबे जग ने देखी हैं, भोर यहीं अभिराम॥

जो जीवन इससे जुड़ जाते, अनगिन पुण्य उन्हें मिल जाते।
वे इसके पावन परिसर मे पातें चारों धाम॥

जन जन बहुत विकल जब देखे, शापित नयन सजल जब देखे।
सिद्ध रसायन देने आए उन्हें यहीं श्री राम॥

सतयुग में विश्वाश जहाँ हैं, बढ़ने का उल्लास जहाँ हैं।
उस पावन धरती को कर ले श्रद्धा सहित प्रणाम॥

--शचिन्द्र भटनागर * अखंड ज्योति नवम्बर १९९९

Wednesday, July 30, 2008

विभूति दीप यज्ञ

आओ ! दीप जलाओ।
नवयुग का दिनमान उग रहा हैं, अब आरती सजाओ।

दाल न गल पायेगी तम की।
चाल न चल पायेगी भ्रम की।
ज्ञान-प्रकाश उतरता भू पर, जन-जन तक पहुँचाओ।

अब अज्ञान सिमट जाएगा।
अब भटकाव न भटकायेगा।
प्रज्ञा का विस्तार हो रहा, प्रतिभाओ ! जग जाओ।

दीप जलाओ प्रतिभाओं के।
पुष्प चढाओ क्षमताओ के।
स्वर्ग धरा पर उतर रहा हैं, अगवानी को जाओ।

नवल सृजन की यह वेला।
प्रतिभा के दीपो का मेला।
तमसोऽमा ज्योतिर्गमय हित, ' ज्योति पुंज ' बन जाओ।

गाँव-गाँव में, नगर-नगर में।
दीप प्रज्वलित हों घर-घर में।
प्रतिभाओ के राष्ट्र ! जागकर ' जगत गुरु ' कहलाओ।

-- मंगलविजय ' विजयवर्गीय ' अखंड ज्योति-दिसम्बर २००४

Sunday, July 27, 2008

श्रीकृष्ण - अवतरण

कौरवी-षडयंत्र अब भी चल रहा,
पाण्डवी ऊर्जा कहाँ सोई हुई।
कौरवो की क्रूरता सक्रिय अभी,
पार्थ की पुरुषार्थ-गति निष्क्रिय हुई

आज निर्वासित हुवा सद्भाव है,
स्नेह, श्रम, सहकर वृति अभाव है।
सदाशयता के लिया है स्थान कब,
धनान्धो-धृतराष्ट्र मति खोई हुई॥

द्रोपदी, अब भी सुरक्षित है कहाँ,
नारियो पर क्रूर द्रष्टि जहाँ-तहाँ।
दुःशासन-बाहुबली बदनियत है,
दर्प सत्ता-दुर्योधन का कम नही॥

आज भी लुटती स्वदेशी सम्पदा,
रही जनतंत्र-बृज पर आपदा॥
क्रूरता गोमांस के निर्यात की,
क्यों तुम्हे गोपाल ! खलती ही नही॥

विदेशी आयात कालियादेह है,
विषैला जनतंत्र-जमना गेह है।
नाथने वैश्वीकरण के नाग को,
कृष्ण ! क्या आई नही अब भी घड़ी॥

पार्थ के पुरुषार्थ को झकझोरने,
कौरवी दुष्चक्र को अब तोड़ने।
महाभारत हो गया अनिवार्य है,
फ़िर जरुरत ज्ञान-गीता की हुई।

होइए जनचेतना मे अवतरित,
प्रेरणा जनक्रांति की करने त्वरित।
भार पापो का बढ़ा है धारा पर,
अवतरण की आपके वेला हुई॥

- मंगलविजय ' विजयवर्गीय अखंड ज्योति अगस्त २००६

Saturday, July 26, 2008

अवसर न खोने की वेला

युगद्रष्टा ने हैं चिन्तन के मेघ बहुत बरसाए,
ऐसा हो पुरुषार्थ, कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

लगता है, ज्यों कई जनम के भाग्य हमारे जागे,
आतुर है आकाश बरसने को आँखों के आगे,
करना है पुरुषार्थ, बादलो का जल हमें संजोना,
अनुपम अवसर मिला हमें जो, उसे हमको खोना है,

भाग्यवान है हम कि भूमि पर इस वेला मे आए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

ऋषि के शब्द-शब्द है ऐसे धधक रहे अंगारे,
दुश्चिन्तन-दुर्भाव दोष मिट जाते सभी हमारे,
आत्महीनता से जिनके मन है निस्तेज प्रकम्पित,
पाकर उनकी तपन, वही होंगे सक्रिय, उत्साहित,

हो प्रयास, जिससे वह ऊष्मा जन-जन को मिल पाए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

दिन क्या, पल-पल का भी होता मूल्य बहुत खेती मे,
मेहनत से तैयार भूमि होती है धीमे-धीमे,
मोसम है उपयुक्त, व्यर्थ हम समय बिल्कुल खोये,
गुरु के क्रांति-बीज मानव की मनोभूमि मे बोए,

सदाचार की जनहितकारी फसल यहाँ लहराए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

गुरुवर की प्रेरणा भरी हैं सरल सहज वाणी मे,
भर सकती है प्रखर चेतना वह प्राणी-प्राणी मे,
परिवर्तन के सूत्र स्वयं समझे, सबको समझाए,
नई सुबह के लिए सभी मे दृढ विश्वाश जगाये,

शिथिल नही हो पांव, कोई आँख कहीं अलसाये |
ऐसा हो पुरुषार्थ, कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |

_शचीन्द्र भटनागर

अखंड ज्योति जुलाई 2008

Tuesday, July 22, 2008

कड़ी

कड़ी जो जोड़ती है-
कर्तव्य को अधिकार से,
वाणी को व्यवहार से,
सादगी को श्रृंगार से,
नफ़रत को प्यार से ।

कड़ी जो जोड़ती है -
अमीर को फ़कीर से,
आत्मा को शरीर से,
प्रसन्नता को पीर से,
जोशीलेपन को धीर से |

कड़ी जो जोड़ती है-
संस्कृति को सभ्यता से,
बड़प्पन को महानता से,
भौतिकता को नैतिकता से,
आदर्शवाद को व्यावहारिकता से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
फ़ैशन को शालीनता से,
पुरातन को नवीनता से,
अहंकार को हीनता से,
सरलता को गंभीरता से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
दिल को दिमाग से,
पानी को आग से,
मनोरंजन को वैराग से |

कड़ी जो जोड़ती है-
अध्यात्म को विज्ञान से,
श्वाँस को प्राण से,
अस्थिरता को विराम से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
जवानी को बुढ़ापे से,
आँगन को अहाते से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
पूरब को पश्चिम से,
आदि को अंतिम से ।

कड़ी जो जोड़ती है-
तुच्छ को महान से,
इंसान को भगवान से,
इंसान को इंसान से ।

वो कड़ी कहीं खो गयी है शायद ।
क्या हममें है वो लचक,
कि हम बन सकें वो कड़ी ?

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आश्वासन ( गुरुदेव )

तुम न घबराओ न आंसू ही बहाओ अब

और कोई हो हो, पर मैं तुम्हारा हूँ |
मैं खुशी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा,
तुम घबराओ..............................||
मानता हूँ ठोकरें तुमने सदा खाईं,
जिंदगी के दांव में, हारें सदा पाईं |
बिजलियाँ दुःख की, निराशा की सदा टूटीँ,
मन गगन पर वेदना की बदलियाँ छाईं |
पोंछ दूँगा मैं तुम्हारे अश्रु गीतों से,
तुम सरीखे बे-सहारों का सहारा हूँ |
मैं तुम्हारे घाव धो मरहम लगाऊँगा,
मैं विजय के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा |
तुम घबराओ..............................||
खा गई इंसानियत को भूख यह भूखी,
स्नेह ममता को गई पी प्यास यह सूखी |
जानवर भी पेट का साधन जुटाते हैं,
जिंदगी का हक़ नही है रोटियां रूखी |
और कुछ माँगो हँसी माँगो खुशी माँगो,
खो गए हो, दे रहा तुमको इशारा हूँ |
आज जीने की कला तुमको सिखाऊंगा,
जिन्दगी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा |
तुम घबराओ..............................||

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Monday, July 21, 2008

सुनो सुनो ए बहिन- भाइयो |

सुनो सुनो ए बहिन- भाइयो, एक बड़े पते की बात |
नए सृजन का समय आ गया, उठो बढाओ हाथ ||
यों तो करने वाले करते भारी पूजा-पाठ
लेकिन प्रभु का काम न करते , करते कोरी बात ||
बात ही बात, न देते साथ ||

भ्रम के भटकावे छोडो, कुछ काम प्रभु का कर लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

सुनो सुनो युग दूत बुलाता, मत उसको झुठलाओ |
भीतर से सद्भाव जगाता, उस पर ध्यान लगाओ ||
अलग-अलग मत भटको भाई, मिलकर कदम बढाओ |
युग विचार, युग ऋषि से मिलकर, जन-जन तक पहुँचाओ ||
अवसर अनमोल पकड़ लो रे, अपना प्रयास तो कर लो रे |
थोडी हिम्मत तो कर लो रे |

जप-तप का बस करो ना, सुनते हो कुछ काम करो ना |
मन की मनमानी छोडो, प्रज्ञा की राह पकड़ लो रे ||

लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे |
मत डरना यदि असुर शक्तियाँ, दिखें भयानक भारी ||
युग के एक थपेडे से, ढह जाते अत्याचारी |
समय-समय पर युग दूतों ने, बिगड़ी बात सँभारी ||
प्रज्ञा पुत्रों ! आगे आओ, आज तुम्हारी बारी |
मन को छोटा मत होने दो, साहस मत ओछा होने दो ||
प्रभु कि मर्जी भी होने दो |

प्रभु की लीला याद करो रे, गिद्ध-ग्वाल सा शौर्य भरो रे |
कल की कायरता छोडो, बासंती चोल रंग लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
पढ़ते हैं इतिहास तो कहते काश ! कि हम भी होते |
हम भी कुछ करके दिखलाते, कभी न अवसर खोते ||
हम ना अवसर खोते भैया, सबसे आगे होते |
उनने केवल गीत न गाये - मेरा रंग दे बसंती चोला ||
उनने केवल गीत न गाये - जौहर दिखा शहीद कहाये |
वे गोली पर भी डटे रहे - तुम गाली से डर रहे अरे ||
कैसी गलती कर रहे अरे ||

अपनी गरिमा याद करो ना- काम करो बकवास करो ना |
ढुलमुल ढकोसले छोडो- वीरों की राह पकड़ लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

भले काम के लिए कहो तो - हमको समय कहाँ है ?
सच पूछो तो वक्त काटते फिरते जहाँ - तहाँ हैं ||
हम समय अकारण खोते- है समय नहीं यों रोते हैं |
हर जीवन कि यही व्यथायें- अजब समय की अजब कथाएं ||
यह अपनी अजब कमाई है, गत अपनी स्वयं बनायी है |
अब तो भूल सुधार करो रे - ख़ुद अपना उद्धार करो रे ||
यह रुढिवादिता- रास्ता विवेक का गह लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

प्रज्ञा युग आने वाला है - युग ने ली अंगड़ाई |
युग निर्माण योजना लेकर - नया संदेशा लाई ||
हर मन में देवत्व जगाना, भू पर स्वर्ग बनाना है |
अपना कर सुधार इस जग को - फिर से श्रेष्ठ बनाना है |
युग ऋषि का संदेश ह्रदय में- सबके हमें बिठाना है |
अंशदान कर समयदान कर- घर-घर अलख जगाना है ||
युग वेला है - चूक न जाना- शंका में मत समय गँवाना |
शंका डायन को छोडो- उल्लास ह्रदय में भर लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

प्रज्ञा पुत्र कहाने वालों- जीवन धन्य बना लो |
जाग्रत आत्मा बनकर भाई- सोये भाग्य जगा लो ||
साझेदारी प्रभु से कर लो- जो चाहो सो पा लो |
ऐसा समय ना फिर-फिर आता-आओ लाभ उठा लो ||
समझदार कहलाने वालों- ना समझी से हाथ हटा लो |
अपना ओछापन छोडो- प्रभु की विशालता वर लो रे ||
नाव बाँधकर इस बेडे से, ख़ुद भवसागर तर लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

बहुत बढ़ गए पाप धरा पर- उनको मार भगायें |
देव संस्कृति को हम फिर से- घर-घर में पहुंचायें ||
घोड़ा अश्वमेध का छूटा- विजयी उसे बनायें |
महाकाल की सुनें गर्जना- जागें और जगायें ||
कुछ बीज पुण्य के बोओ रे- यह स्वर्ण घड़ी मत खोओ रे |
जागो अब तो मत सोओ रे ||

अपना तेजस् भूल न जाना, इस जग में ओजस् फैलाना |
ओछापन मन का छोडो- छाती चौड़ी कर लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||

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Saturday, July 19, 2008

परावाणी के निर्देश

तूफानी मोसम मे जो तूफानी चाल दिखायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

धीरे चलने वाला तेज हवाओ मे घिर जाता है,
अलग-थलग जो रहता है वह पथ मे ही गिर जाता है |
एक तरफ़ गहरी खाई है, उससे कदम बचाने है,
और दूसरी और फिसलने है, भरपूर ढलाने है,
सबके साथ संघटित होकर जो भी कदम बढ़ाएगा,
युग उसके गुण जायेगा |

इस पीढी को गीत सुनाओ मत केवल मादकता के,
बहकाओ मत उसे दिखाकर सपने तुम भावुकता के,
ऐसे गीत रचो जो जाग्रत कर दे दसो दिशाओ को,
झकझोरे युवको के पूरे चिंतन और क्रियाओ को,
जो प्रमाद को हटा, मनुज मे नूतन प्राण जगायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

कला वह सच्ची होती जो दुर्भावना जगाती है,
जो हिंसा-अत्याचारों के लिए हमे उकसाती है,
कला तुम्हारी ऐसी हो जिससे पावनता झरती हो,
ह्रदयों मे जो सत्कर्मो के लिए प्रेरणा भरती हो,
जो सदभावों की सुपावनी धार बहायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

सावधान हो जाओ, मेरी कोटि-कोटि संतानों तुम,
महाकाल का चक्र चल रहा है, उसको पहचानो तुम,
उसकी प्रखर द्रष्टि से कोई व्यक्ति नही छिप सकता है,
कोई साथ चले चले, पर कार्य उसका रुकता है,
जो उसका सहयोगी होगा , श्रेय वही तो पायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |

मेरे आत्मीय परिजनों ! जिन्हें मनुजता प्यारी है,
बलिदानों के लिये उन्ही की यह दुनिया आभारी है,
तुमने त्याग-तितिक्षा-तप का जो आदर्श दिखाया है,
नई भोर का उसने ही नूतन इतिहास बनाया है,
हर सहयोग तुम्हारा युग का शिलालेख बन जायगा,
युग उसके गुण जायेगा |

- शचीन्द्र भटनागर अखंड ज्योति मई २००२

Wednesday, July 16, 2008

गुरु की खोज

तुम्हारे सूत्र जीवन मे नही हमने उतारे,
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

कभी जब तेज धारो मे बहावों मे घिरे हम,
हुऐ अक्षम पकड़ने मे सभी सक्षम सिरे हम,
तुम्ही ने स्नेह-संरक्षण हमे उस क्षण दिया,
स्वयम् दायित्व शिष्यों का सदा तुमने लिया है,

कृपा से पा गए है हम सबल अविचल किनारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

तनिक सोचे की हमने किस तरह जीवन जिया है,
किसी के अश्रु पोंछे क्या किसी का दुःख पिया है ?
कभी देवत्व का आलोक हममे दीख पाया है ?
हमारे आचरण ने क्या किसी का मन लुभाया है ?

हमारे प्यार ने कितने यहाँ जीवन सुधारे,
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

स्वयम् अपनी समीक्षा का रखा क्या ध्यान हमने ?
स्वयम परिवार का कितना किया निर्माण हमने ?
किया क्या अन्य का आदर, सहज सत्कार हमने ?
किया कितने सुझावों को यहाँ स्वीकार हमने ?

कभी यह प्रश्न जीवन मे नही हमने विचारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

हमे है लोकसेवी बन सभी के मध्य जाना,
छिप सकता कभी गुण-दोष का अपना खजाना,
तभी तो स्वच्छ रखना है हमे प्रत्येक कोना ,
कथन से पूर्व है हमको स्वयम् उत्कृष्ट होना,

जरुरी है की हर परिजन स्वयम् का मन बुहारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |

--शचीन्द्र भटनागर

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