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Thursday, July 31, 2008
शान्ति का धाम
जहाँ गूंजती हैं गुरुवर की वाणी आठों याम॥
ज्योति अखंड जहाँ जलती हैं, नित नूतन आशा जगती हैं।
सफल मनोरथ करती जिसकी माटी ललित ललाम॥
जन सेवा का सार जहाँ हैं, देवोपम संसार जहाँ हैं।
प्रतिभाएँ रहती हैं तजकर, धन-साधन-पद-नाम॥
जहाँ सहज मन से मन मिलता, अनदेखा अपनापन मिलता।
सुधा बरसती हैं, कण-कण से जहाँ सुबह और शाम॥
जहाँ न अपना-बेगाना, सीखा सुख देकर सुख पाना।
पीर बँटा लेते सब देकर अपना सुख-आराम॥
जहाँ कामनाएँ मिट जाती, करुणा की धारा लहराती।
स्वार्थ-भाव खोकर मानव का मन होता निष्काम॥
नवयुग का युगतीर्थ यहीं हैं, शान्ति न इतनी और कहीं हैं।
तम डूबे जग ने देखी हैं, भोर यहीं अभिराम॥
जो जीवन इससे जुड़ जाते, अनगिन पुण्य उन्हें मिल जाते।
वे इसके पावन परिसर मे पातें चारों धाम॥
जन जन बहुत विकल जब देखे, शापित नयन सजल जब देखे।
सिद्ध रसायन देने आए उन्हें यहीं श्री राम॥
सतयुग में विश्वाश जहाँ हैं, बढ़ने का उल्लास जहाँ हैं।
उस पावन धरती को कर ले श्रद्धा सहित प्रणाम॥
--शचिन्द्र भटनागर * अखंड ज्योति नवम्बर १९९९
Wednesday, July 30, 2008
विभूति दीप यज्ञ
नवयुग का दिनमान उग रहा हैं, अब आरती सजाओ।
दाल न गल पायेगी तम की।
चाल न चल पायेगी भ्रम की।
ज्ञान-प्रकाश उतरता भू पर, जन-जन तक पहुँचाओ।
अब अज्ञान सिमट जाएगा।
अब भटकाव न भटकायेगा।
प्रज्ञा का विस्तार हो रहा, प्रतिभाओ ! जग जाओ।
दीप जलाओ प्रतिभाओं के।
पुष्प चढाओ क्षमताओ के।
स्वर्ग धरा पर उतर रहा हैं, अगवानी को जाओ।
नवल सृजन की यह वेला।
प्रतिभा के दीपो का मेला।
तमसोऽमा ज्योतिर्गमय हित, ' ज्योति पुंज ' बन जाओ।
गाँव-गाँव में, नगर-नगर में।
दीप प्रज्वलित हों घर-घर में।
प्रतिभाओ के राष्ट्र ! जागकर ' जगत गुरु ' कहलाओ।
-- मंगलविजय ' विजयवर्गीय ' अखंड ज्योति-दिसम्बर २००४
Sunday, July 27, 2008
श्रीकृष्ण - अवतरण
पाण्डवी ऊर्जा कहाँ सोई हुई।
कौरवो की क्रूरता सक्रिय अभी,
पार्थ की पुरुषार्थ-गति निष्क्रिय हुई ॥
आज निर्वासित हुवा सद्भाव है,
स्नेह, श्रम, सहकर वृति अभाव है।
सदाशयता के लिया है स्थान कब,
धनान्धो-धृतराष्ट्र मति खोई हुई॥
द्रोपदी, अब भी सुरक्षित है कहाँ,
नारियो पर क्रूर द्रष्टि जहाँ-तहाँ।
दुःशासन-बाहुबली बदनियत है,
दर्प सत्ता-दुर्योधन का कम नही॥
आज भी लुटती स्वदेशी सम्पदा,
आ रही जनतंत्र-बृज पर आपदा॥
क्रूरता गोमांस के निर्यात की,
क्यों तुम्हे गोपाल ! खलती ही नही॥
विदेशी आयात कालियादेह है,
विषैला जनतंत्र-जमना गेह है।
नाथने वैश्वीकरण के नाग को,
कृष्ण ! क्या आई नही अब भी घड़ी॥
पार्थ के पुरुषार्थ को झकझोरने,
कौरवी दुष्चक्र को अब तोड़ने।
महाभारत हो गया अनिवार्य है,
फ़िर जरुरत ज्ञान-गीता की हुई।
होइए जनचेतना मे अवतरित,
प्रेरणा जनक्रांति की करने त्वरित।
भार पापो का बढ़ा है धारा पर,
अवतरण की आपके वेला हुई॥
- मंगलविजय ' विजयवर्गीय अखंड ज्योति अगस्त २००६
Saturday, July 26, 2008
अवसर न खोने की वेला
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
लगता है, ज्यों कई जनम के भाग्य हमारे जागे,
आतुर है आकाश बरसने को आँखों के आगे,
करना है पुरुषार्थ, बादलो का जल हमें संजोना,
अनुपम अवसर मिला हमें जो, उसे न हमको खोना है,
भाग्यवान है हम कि भूमि पर इस वेला मे आए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
ऋषि के शब्द-शब्द है ऐसे धधक रहे अंगारे,
दुश्चिन्तन-दुर्भाव दोष मिट जाते सभी हमारे,
आत्महीनता से जिनके मन है निस्तेज प्रकम्पित,
पाकर उनकी तपन, वही होंगे सक्रिय, उत्साहित,
हो प्रयास, जिससे वह ऊष्मा जन-जन को मिल पाए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
दिन क्या, पल-पल का भी होता मूल्य बहुत खेती मे,
मेहनत से तैयार भूमि होती है धीमे-धीमे,
मोसम है उपयुक्त, व्यर्थ हम समय न बिल्कुल खोये,
गुरु के क्रांति-बीज मानव की मनोभूमि मे बोए,
सदाचार की जनहितकारी फसल यहाँ लहराए |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
गुरुवर की प्रेरणा भरी हैं सरल सहज वाणी मे,
भर सकती है प्रखर चेतना वह प्राणी-प्राणी मे,
परिवर्तन के सूत्र स्वयं समझे, सबको समझाए,
नई सुबह के लिए सभी मे दृढ विश्वाश जगाये,
शिथिल नही हो पांव, न कोई आँख कहीं अलसाये |
ऐसा हो पुरुषार्थ, न कोई बूंद व्यर्थ बह पाए |
_शचीन्द्र भटनागर
अखंड ज्योति जुलाई 2008
Tuesday, July 22, 2008
कड़ी
कड़ी जो जोड़ती है-
कर्तव्य को अधिकार से,
वाणी को व्यवहार से,
सादगी को श्रृंगार से,
नफ़रत को प्यार से ।
कड़ी जो जोड़ती है -
अमीर को फ़कीर से,
आत्मा को शरीर से,
प्रसन्नता को पीर से,
जोशीलेपन को धीर से |
कड़ी जो जोड़ती है-
संस्कृति को सभ्यता से,
बड़प्पन को महानता से,
भौतिकता को नैतिकता से,
आदर्शवाद को व्यावहारिकता से ।
कड़ी जो जोड़ती है-
फ़ैशन को शालीनता से,
पुरातन को नवीनता से,
अहंकार को हीनता से,
सरलता को गंभीरता से ।
कड़ी जो जोड़ती है-
दिल को दिमाग से,
पानी को आग से,
मनोरंजन को वैराग से |
कड़ी जो जोड़ती है-
अध्यात्म को विज्ञान से,
श्वाँस को प्राण से,
अस्थिरता को विराम से ।
कड़ी जो जोड़ती है-
जवानी को बुढ़ापे से,
आँगन को अहाते से ।
कड़ी जो जोड़ती है-
पूरब को पश्चिम से,
आदि को अंतिम से ।
कड़ी जो जोड़ती है-
तुच्छ को महान से,
इंसान को भगवान से,
इंसान को इंसान से ।
वो कड़ी कहीं खो गयी है शायद ।
क्या हममें है वो लचक,
कि हम बन सकें वो कड़ी ?
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आश्वासन ( गुरुदेव )
तुम न घबराओ न आंसू ही बहाओ अब
और कोई हो न हो, पर मैं तुम्हारा हूँ |मैं खुशी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा,
तुम न घबराओ..............................||
मानता हूँ ठोकरें तुमने सदा खाईं,
जिंदगी के दांव में, हारें सदा पाईं |
बिजलियाँ दुःख की, निराशा की सदा टूटीँ,
मन गगन पर वेदना की बदलियाँ छाईं |
पोंछ दूँगा मैं तुम्हारे अश्रु गीतों से,
तुम सरीखे बे-सहारों का सहारा हूँ |
मैं तुम्हारे घाव धो मरहम लगाऊँगा,
मैं विजय के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा |
तुम न घबराओ..............................||
खा गई इंसानियत को भूख यह भूखी,
स्नेह ममता को गई पी प्यास यह सूखी |
जानवर भी पेट का साधन जुटाते हैं,
जिंदगी का हक़ नही है रोटियां रूखी |
और कुछ माँगो हँसी माँगो खुशी माँगो,
खो गए हो, दे रहा तुमको इशारा हूँ |
आज जीने की कला तुमको सिखाऊंगा,
जिन्दगी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा |
तुम न घबराओ..............................||
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Monday, July 21, 2008
सुनो सुनो ए बहिन- भाइयो |
सुनो सुनो ए बहिन- भाइयो, एक बड़े पते की बात |
नए सृजन का समय आ गया, उठो बढाओ हाथ ||
यों तो करने वाले करते भारी पूजा-पाठ
लेकिन प्रभु का काम न करते , करते कोरी बात ||
बात ही बात, न देते साथ ||
भ्रम के भटकावे छोडो, कुछ काम प्रभु का कर लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
सुनो सुनो युग दूत बुलाता, मत उसको झुठलाओ |
भीतर से सद्भाव जगाता, उस पर ध्यान लगाओ ||
अलग-अलग मत भटको भाई, मिलकर कदम बढाओ |
युग विचार, युग ऋषि से मिलकर, जन-जन तक पहुँचाओ ||
अवसर अनमोल पकड़ लो रे, अपना प्रयास तो कर लो रे |
थोडी हिम्मत तो कर लो रे |
जप-तप का बस करो ना, सुनते हो कुछ काम करो ना |
मन की मनमानी छोडो, प्रज्ञा की राह पकड़ लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे |
मत डरना यदि असुर शक्तियाँ, दिखें भयानक भारी ||
युग के एक थपेडे से, ढह जाते अत्याचारी |
समय-समय पर युग दूतों ने, बिगड़ी बात सँभारी ||
प्रज्ञा पुत्रों ! आगे आओ, आज तुम्हारी बारी |
मन को छोटा मत होने दो, साहस मत ओछा होने दो ||
प्रभु कि मर्जी भी होने दो |
प्रभु की लीला याद करो रे, गिद्ध-ग्वाल सा शौर्य भरो रे |
कल की कायरता छोडो, बासंती चोल रंग लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
पढ़ते हैं इतिहास तो कहते काश ! कि हम भी होते |
हम भी कुछ करके दिखलाते, कभी न अवसर खोते ||
हम ना अवसर खोते भैया, सबसे आगे होते |
उनने केवल गीत न गाये - मेरा रंग दे बसंती चोला ||
उनने केवल गीत न गाये - जौहर दिखा शहीद कहाये |
वे गोली पर भी डटे रहे - तुम गाली से डर रहे अरे ||
कैसी गलती कर रहे अरे ||
अपनी गरिमा याद करो ना- काम करो बकवास करो ना |
ढुलमुल ढकोसले छोडो- वीरों की राह पकड़ लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
भले काम के लिए कहो तो - हमको समय कहाँ है ?
सच पूछो तो वक्त काटते फिरते जहाँ - तहाँ हैं ||
हम समय अकारण खोते- है समय नहीं यों रोते हैं |
हर जीवन कि यही व्यथायें- अजब समय की अजब कथाएं ||
यह अपनी अजब कमाई है, गत अपनी स्वयं बनायी है |
अब तो भूल सुधार करो रे - ख़ुद अपना उद्धार करो रे ||
यह रुढिवादिता- रास्ता विवेक का गह लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
प्रज्ञा युग आने वाला है - युग ने ली अंगड़ाई |
युग निर्माण योजना लेकर - नया संदेशा लाई ||
हर मन में देवत्व जगाना, भू पर स्वर्ग बनाना है |
अपना कर सुधार इस जग को - फिर से श्रेष्ठ बनाना है |
युग ऋषि का संदेश ह्रदय में- सबके हमें बिठाना है |
अंशदान कर समयदान कर- घर-घर अलख जगाना है ||
युग वेला है - चूक न जाना- शंका में मत समय गँवाना |
शंका डायन को छोडो- उल्लास ह्रदय में भर लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
प्रज्ञा पुत्र कहाने वालों- जीवन धन्य बना लो |
जाग्रत आत्मा बनकर भाई- सोये भाग्य जगा लो ||
साझेदारी प्रभु से कर लो- जो चाहो सो पा लो |
ऐसा समय ना फिर-फिर आता-आओ लाभ उठा लो ||
समझदार कहलाने वालों- ना समझी से हाथ हटा लो |
अपना ओछापन छोडो- प्रभु की विशालता वर लो रे ||
नाव बाँधकर इस बेडे से, ख़ुद भवसागर तर लो रे |
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
बहुत बढ़ गए पाप धरा पर- उनको मार भगायें |
देव संस्कृति को हम फिर से- घर-घर में पहुंचायें ||
घोड़ा अश्वमेध का छूटा- विजयी उसे बनायें |
महाकाल की सुनें गर्जना- जागें और जगायें ||
कुछ बीज पुण्य के बोओ रे- यह स्वर्ण घड़ी मत खोओ रे |
जागो अब तो मत सोओ रे ||
अपना तेजस् भूल न जाना, इस जग में ओजस् फैलाना |
ओछापन मन का छोडो- छाती चौड़ी कर लो रे ||
लुटा रहा युग पुरूष सिद्धियाँ, चाहे झोली भर लो रे ||
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Saturday, July 19, 2008
परावाणी के निर्देश
युग उसके गुण जायेगा |
धीरे चलने वाला तेज हवाओ मे घिर जाता है,
अलग-थलग जो रहता है वह पथ मे ही गिर जाता है |
एक तरफ़ गहरी खाई है, उससे कदम बचाने है,
और दूसरी और फिसलने है, भरपूर ढलाने है,
सबके साथ संघटित होकर जो भी कदम बढ़ाएगा,
युग उसके गुण जायेगा |
इस पीढी को गीत सुनाओ मत केवल मादकता के,
बहकाओ मत उसे दिखाकर सपने तुम भावुकता के,
ऐसे गीत रचो जो जाग्रत कर दे दसो दिशाओ को,
झकझोरे युवको के पूरे चिंतन और क्रियाओ को,
जो प्रमाद को हटा, मनुज मे नूतन प्राण जगायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |
कला न वह सच्ची होती जो दुर्भावना जगाती है,
जो हिंसा-अत्याचारों के लिए हमे उकसाती है,
कला तुम्हारी ऐसी हो जिससे पावनता झरती हो,
ह्रदयों मे जो सत्कर्मो के लिए प्रेरणा भरती हो,
जो सदभावों की सुपावनी धार बहायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |
सावधान हो जाओ, मेरी कोटि-कोटि संतानों तुम,
महाकाल का चक्र चल रहा है, उसको पहचानो तुम,
उसकी प्रखर द्रष्टि से कोई व्यक्ति नही छिप सकता है,
कोई साथ चले न चले, पर कार्य न उसका रुकता है,
जो उसका सहयोगी होगा , श्रेय वही तो पायेगा,
युग उसके गुण जायेगा |
ओ मेरे आत्मीय परिजनों ! जिन्हें मनुजता प्यारी है,
बलिदानों के लिये उन्ही की यह दुनिया आभारी है,
तुमने त्याग-तितिक्षा-तप का जो आदर्श दिखाया है,
नई भोर का उसने ही नूतन इतिहास बनाया है,
हर सहयोग तुम्हारा युग का शिलालेख बन जायगा,
युग उसके गुण जायेगा |
- शचीन्द्र भटनागर अखंड ज्योति मई २००२
Wednesday, July 16, 2008
गुरु की खोज
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |
कभी जब तेज धारो मे बहावों मे घिरे हम,
हुऐ अक्षम पकड़ने मे सभी सक्षम सिरे हम,
तुम्ही ने स्नेह-संरक्षण हमे उस क्षण दिया,
स्वयम् दायित्व शिष्यों का सदा तुमने लिया है,
कृपा से पा गए है हम सबल अविचल किनारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |
तनिक सोचे की हमने किस तरह जीवन जिया है,
किसी के अश्रु पोंछे क्या किसी का दुःख पिया है ?
कभी देवत्व का आलोक हममे दीख पाया है ?
हमारे आचरण ने क्या किसी का मन लुभाया है ?
हमारे प्यार ने कितने यहाँ जीवन सुधारे,
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |
स्वयम् अपनी समीक्षा का रखा क्या ध्यान हमने ?
स्वयम परिवार का कितना किया निर्माण हमने ?
किया क्या अन्य का आदर, सहज सत्कार हमने ?
किया कितने सुझावों को यहाँ स्वीकार हमने ?
कभी यह प्रश्न जीवन मे नही हमने विचारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |
हमे है लोकसेवी बन सभी के मध्य जाना,
न छिप सकता कभी गुण-दोष का अपना खजाना,
तभी तो स्वच्छ रखना है हमे प्रत्येक कोना ,
कथन से पूर्व है हमको स्वयम् उत्कृष्ट होना,
जरुरी है की हर परिजन स्वयम् का मन बुहारे |
रहे बस खोजते निशिदिन तुम्हारे ही सहारे |
--शचीन्द्र भटनागर